किसी भी संज्ञेय मामले की सूचना पुलिस को प्राप्त होने पर चाहे वह किसी भी माध्यम से प्राप्त हुई हो । पुलिस का कर्तव्य बनता है कि वह उस मामले में CR.P.C की धारा 154 के अन्तर्गत तुरंत एफ आई आर दर्ज कर, विवेचना शुरू कर दे और पीड़ित पक्ष की न्याय दिलाने में हरसंभव मदद करें । ऐसे संज्ञेय अपराध, जिसमें एफ आई आर दर्ज की गई है, उससे संबंधित सभी सबूतों को इकट्ठा करें एवं अभियुक्त को जल्द से जल्द गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करें । लेकिन ज्यादातर मामलों में पुलिस ऐसा करती नहीं है और अपने कर्तव्यों को भूल जाती है । ऐसी स्थिति में पीड़ित पक्ष के पास भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 ( सीआरपीसी ) की धारा 156 ( 3 ) के तहत यह अधिकार है कि वह माननीय न्यायालय के समक्ष एफ आई आर दर्ज कराने हेतु अपना प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकता है । यदि माननीय न्यायालय को यह समाधान हो जाता है कि ऐसा कोई संज्ञेय अपराध घटित हुआ है । जिसमें प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर उचित कार्रवाई की जानी आवश्यक है । तो माननीय न्यायालय पुलिस थाने के भार साधक अधिकारी को यह आदेशित कर सकती है कि उपरोक्त मामले में एफ आई आर दर्ज कर विवेचना की जाए ।
मजिस्ट्रेट का अधिकार
मजिस्ट्रेट के पास दो परिस्थितियो में अन्वेषण करने का निर्देश देने अधिकार होता :-
(1) यदि पुलिस द्वारा एफ आई आर दर्ज करना अस्वीकार कर दिया गया हो ।
(2) जब किसी कारण से पुलिस द्वारा अन्वेषण करने के विधिक अधिकार का प्रयोग नहीं किया जा रहा हो ।
[ धर्मेश भाई वासुदेव भाई बनाम गुजरात राज्य 2009 क्रिमिनल लाॅ जनरल 2969 ]
यदि किसी ऐसे समझें मामले में मजिस्ट्रेट को लगता है की पुलिस जानबूझकर मामले में एफ आई आर दर्ज नहीं कर रही है या विवेचना नहीं कर रही है तब मजिस्ट्रेट उस मामले हस्तक्षेप कर सकता है और या तो पुलिस को विवेचना करने का आदेश दे सकता है या फिर स्वयं या अपने किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को जांच करने का आदेश भी दे सकता है ।
Thus, power to direct investigation may arise in two different situations – (1) when a first information report is refused to be lodged; or (2) when the statutory power of investigation for some reason or the other is not conducted.
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